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यादें, माँ की / संजीव 'शशि'
Kavita Kosh से
फिर घेरा माँ की यादों ने,
फिर से नयना आये भर।
सूनी सी देहरी लगती जब,
बाहर से मैं लौटूँ घर।।
देहरी पर बैठे वह माँ का,
रहना सदा प्रतीक्षा में।
अपने सारे सुख पाये थे,
तुमने मेरी इच्छा में।
दुख की धूप हुई तब मेरा,
आँचल से ढँक देना सर।
ढूँढ रहा व्याकुल मन मेरा,
बंधन वह अपनेपन के।
कौन सम्हालेगा माँ मुझको,
पथरीले पथ जीवन के।
गिरने से पहले माँ तेरा,
मुझे थाम लेना बढ़कर।
एक अनोखे भ्रम से मेरे,
भोले से मन को ठगना।
बुला रही हो बेटा कहकर,
मुझको यह हर पल लगना।
कहाँ गयीं तुम मुझे छोड़कर,
नहीं मिले मुझको उत्तर।