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यादें / यतींद्रनाथ राही
Kavita Kosh से
फटी उमर की बूढ़ी चादर
बचपन ने फिर
ली अँगड़ाई।
फूट गयी पाषाण शिलाएँ
नदिया एक
बह चली कल-कल
अम्मा ने
अँजुरी भर पी ली
दादी ने
धर ली भर बोतल
गाँव निचुड़ता हुआ खड़ा है
नाचे
घर द्वारे-अँगनाई।
सरसों फूली
मेड़ें नाची
खनकी चूड़ी झनकी झाँझर
खुशबू की सुकुमार तितलियाँ
रिश्तों के मिठबोले पिक स्वर
उभरे रंग
गगन के कितने
नीड़ों में
सोहर शहनाई।
कोटर में तोते के बच्चे
जंगल में झूली झरबेरी
अब तक
यादों में घुलती हैं
पकी निबौली
कच्ची कैरी
गौधूली में थकित गाय जब
बोझिल अयन
रँभाती आई।
पढ़ी भागवत वट दादा ने
माथे धरे धूल का चन्दन
चौपालों पर
जमी बतकही
मन्दिर-मन्दिर
पूजा अर्चन
खपरैलों पर शॉल धुएँ के
खुशबू
तपे दूध की छाई।
25.9.2017