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युद्ध अनवरत / सुरेन्द्र रघुवंशी

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एक दिन की कोई झड़प नहीं
हर दिन, हर महीने और हर वर्ष के प्रति पल में
एक अनवरत युद्ध है ज़िन्दगी

युद्ध जो ख़ुद से शुरू होता है
जीत सबसे मुश्किल होती है यहीं पर
युद्धभूमि में प्रस्थान से रोकती हैं
सैकड़ों बेड़ियाँ

एक अनजान चीत्कार से बहरे हो जाते हैं कान
एक भयंकर अन्धड़ की धूल
आँखों से देखने की शक्ति
छीन लेती है कुछ समय के लिए

अपने शरीर से
हार के कपड़े उतार फेंकना
अखाड़े में आकर जीत की ओर बढ़ने की
पहली शर्त है

जोश में फड़कती दिखनी चाहिए माँसपेशियाँ
और आँखे चौतरफ़ा घूमती हुई चौकन्नी
ख़ुद रहें तैयार
बलिष्ठ भुजाओं के अनगिनत प्रहार
सहने के लिए नहीं
बल्कि मौका मिलने पर पलटवार के लिए भी

हर रास्ते पर ऐसे अनगिनत अखाड़े हैं
अलग-अलग शक्ल में
जहाँ कमी नहीं है मुश्तण्डे पहलवानों की
लड़ना जीने की शर्त है
(अन्यथा बचने का कोई तरीका नहीं )
दुम दबाकर भागने का रास्ता
सिर्फ़ मौत की ओर जाता है
बुतों के शहर में

अपरिचय का सन्नाटा
भयानक और तोड़ देने वाला था

उस महानगर में
इन्सान नहीं बुत रहते थे
हू-ब-हू इन्सानों की शक़्ल में
जो बिना रुके दौड़े जा रहे थे
या फिर वहाँ
किसी दूसरे ग्रह पर होने का भ्रम होता था

बुत भावों की भाषा से अनभिज्ञ थे
हाँ एक भाषा थी
जो उन्हें आकर्षित करती थी
सिक्कों की खनखनाती भाषा
नोटों को गिने जाने की
सरसराती भाषा
उनकी ज़िन्दगी की किताब के पन्नों पर
सिर्फ़ यही भाषा और लिपि थी
जो उन्हें बाँध सकती थी
इसके लिए वे
किसी भी स्त्रोत तक जाने हेतु तत्पर
और कितनी भी गहरी-अन्धेरी सुरंग में
उतरने के लिए लालायित रहते थे

वहाँ भावनाओं की नदी
नहीं बहती थी उद्दाम
वे वर्षा के आनन्द को नहीं जानते थे
उसमें नहाने के बजाय
किसी रसायन के प्रयोग से
अपने चेहरे को चमका लेने
और सुगन्धित पाऊडर से
तन की दुर्गन्ध मिटा लेने में
अपनी चतुराई मानते थे

जंगलों का उन्होंने
असभ्यता का प्रतीक माना
और पेड़ों को घरों के सोफ़ों में बदल दिया
वह अपने युग को स्वर्ण-युग
और ख़ुद को प्रगतिगामी कहते थे ।