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युद्ध अवश्यम्भावी है / अम्बिका दत्त
Kavita Kosh से
प्राण सोख लेता है
पानी / बाढ़ का
तहस-नहस कर देती है हवा
समूचे खयालों का घर
बीमारी का डर भी है
गरीबी के साथ-साथ
जीवन को जो बुढ़ा रहा है
हरजाई मौसम -
सिर्फ हिसाब रखता है
शरीर पर पहने हुए कपड़ो का
जमीन के बीच
बारूद की बुवाई जारी है
यह फसल है
सिर्फ कोढ़ियों कि
तेल तो तिल्लियों में भी नही है
और न है - घासलेट के दुकानदार के पास
किसी भी सरकार के पास/तेलियों के पास भी नहीं
कब तक प्रार्थना करूं
सिर्फ घानी के घूमते रहने की
बैलों की आंखों पर बंधी पट्टी
युद्ध की श्वेत पताका नहीं है
अपने लिये मजबूरी है
रास्ता न चुन पाने की
तेल तो तिल्लियों में भी नही है
युद्ध अवश्यम्भावी है।