भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये झगड़ा है मोहन हमारा तुम्हारा / बिन्दु जी
Kavita Kosh से
ये झगड़ा है मोहन हमारा तुम्हारा।
कि अब क्या हुआ बल वो सारा तुम्हारा।
जो निज कर्म से होते तरने के काबिल।
तो फिर ढूँढते क्यों सहारा तुम्हारा।
ग़रीबों की आँखों में जिस दिन से जाया।
उसी दिन से है ‘बिन्दु’ प्यासा तुम्हारा।