एक महान दलित नेता के नाम पर बसा
वह एक नगर था
शहर के छोर पर
वहां गरीब-गुरबों की बस्ती थी
एक भरे-पूरे जीवन के हर पहलू से गुंफित
जिसमें एक बैंडबाजे वाला
देर रात अपनी वर्दी पहने कांधे पर ट्रंपेट लिए लौटा करता
एक राजगीर ईंट, सीमेंट, रेत, गिट्टी के
अगले दिन के अनुपात के बारे में सोचता लौटते-लौटते
एक मोची लौटता पादुकाओं की दिनोदिन सिकुड़ती दुनिया
को गरियाते हुए
एक बहेलिया
जो अपने पेशे को अपराध घोषित किए जाने का सोग मनाते हुए
लौटा करता गुजिश्ता कई सालों से
एक लुहार
जिसकी जरूरत शहर को खत्म हो चली थी
उसके भीतर का लोहा धीरे-धीरे पिघल चुका था
वह भी खाली लौट रहा था आज
एक कबाड़ी
अपने ठेले पर कबाड़ हो चुकी दुनिया की कीमत
किलो के हिसाब से आंकता लौट रहा था
एक सफाई कामगार
बदबू मारते शहर को बद्दुआ देते लौट रहा था
शफ्फाक चांद को एकटक देखते हुए
इन सब हुनरमंद कारीगरों की स्त्रियां
शहर को झाड़ पोंछकर चमकाने में रत थीं सालों से
करते-करते शहर कई बार चमचमाते मुखौटे बदल चुका था
मगर यह बस्ती अब भी
चांद के धब्बे की तरह दिखाई देती थी
वास्तुकारों को
इस उपग्रह बस्ती में
कई बरस से सुबह नहीं हुई थी
मगर रात थी कि
रोज लौट आती थी
यहां के नागरिकों से उनकी स्त्रियां रोज रात
अपने हुनर को मांजते रहने की ताकीद करतीं
इस मासूम कोशिश की उम्र और ज्यादा लंबी नहीं थी
इसे वही समझ सकता था
जो इन घरों में नहीं रहता था
मगर हर रात वहां उदास नहीं होती थी
सबके भीतर का संगीत
हर रात एक झुग्गी में बजता सुनाई देता
एक ट्रम्पेट से बाहर आते हुए
जिसे सिर्फ
बस्ती वाले ही बूझ सकते थे।