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ये सूरज की निर्मम चाची / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
ले आई धूप अच्छी खासी।
ये सूरज की निर्मम चाची।
पहने अंगारों की साड़ी।
है चला रही दिन की गाड़ी।
राही लपटों के बैठाकर,
यह दौड़ रही तिरछी आड़ी।
जंगल के हर स्टेशन पर,
रुक आंधी की चिट्ठी वांची।
सन्नाटे पसरे सड़कों पर।
सूं सांय-सांय है सर्राहट।
बैचेन परिंदे दुबके हैं।
पशुओं में भी है घबराहट।
किरणों की पायल बजा-बजा,
दिन की गलियों में यह नाची।
गमछा लेकर तोंदू मल ने,
चूँ रहा पसीना फिर पोंछा।
उफ़ हाय-हाय इतनी गरमी,
चिल्लाकर अपना सिर नोंचा।
फिर तीन चार कुल्फी खाई,
तो छींक आई आँ... छी, आँ ...छी।