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यौम-ए-इक़बाल पर / हबीब जालिब
Kavita Kosh से
लोग उठते है जब तेरे ग़रीबों को जगाने
सब शहर के ज़रदार पहुँच जाते हैं थाने
कहते हैं ये दौलत हमें बख़्शी है ख़ुदा ने
फ़रसुदः बहाने वही अफ़साने पुराने
ऐ शायर-ए-मशरिक! ये ही झूठे ये ही बदज़ात
पीते हैं लहू बंदा-ए-मज़दूर का दिन-रात ।