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रंगहीन शहर / उत्पल डेका / दिनकर कुमार
Kavita Kosh से
चक्कर काटने वाली बातें थोड़ा सुस्ता रही हैं
घूमती रहती हैं वे
इस कान से उस कान तक
सीमान्त के उस पार की चिड़िया
होंठों पर बह आया क़िस्सा सुनाती है
कोंपल और सूखे पत्ते का
शाम का हाट सांस में काँपता है
शहर की चाहत ने
उसके हाथ-पैरों को पंगु बना दिया है
देखने के लिए
शहर की नहीं हैं अपनी आँखें
सुनने के लिए नहीं समय
कहने के लिए नहीं है मुँह में ज़ुबान
चाहने के लिए नहीं कोई अपना
देखी है जिसने सृजन की प्रसव - वेदना
धारण किए हैं जो समय के
कुछ निराश्रित चित्र
लहू-मांस के
जो ठिठका रहता है सब कुछ भूलकर
आलोक की प्रार्थना के लिए
जीवित हैं पंछी, नदी, पेड़
अभी भी है शहर।
मूल असमिया भाषा से अनुवाद : दिनकर कुमार