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रंग - 1 / अनिता मंडा
Kavita Kosh से
पिंजरे में रहने वाले पक्षियों ने सदा
आसमानी गीत गाये
मरुस्थल मन ने खुद पर उगाये हरे सपनें
जितनी बार दूध में केसर डाला
खिल गई चम्पा स्मृति के आले पर
आलता लगे पाँव नृत्यरत दीखे
गुड़हल के हरे दामन पर
पीड़ा विष की पर्यायवाची रही
दोनों का अनुवाद नीला था
किसी अकुलाहट में गेंदे की पंखुड़ियाँ
बिखेरती गई उँगलियाँ
एक जगह थिर दृष्टि में
जाने क्या क्या तैर रहा था
हर पंखुड़ी संभाले हुए थी
बीज की थाती अपने साथ
पीली पंखुड़ियाँ पीली मिट्टी पीला पतझड़
सब मिलकर हो जाने हैं सप्तवर्णी बसंत
सच ही तो है
रंग बदलते कोई देर लगती है भला