शिव
सरिताएँ चार हैं
भुजाएँ तुम्हारी चार,
धाराएँ चार हैं
सारा अस्तित्व ही तुम्हारा
एक धारा है,
जिसमें नहाती लावण्यमयी पार्वती
जिसमें वह डोलतीं, गरिमामय शिल्प बन ।
सागर धड़कता है सूरज के नीचे
खुले होंठ शिव मुस्कराते हैं;
सागर है लम्बी एक चादर लपट की
जल पर हैं चरण-चिह्न तिरते,
पार्वती के ।
शिव और पार्वती
स्त्री जो पत्नी है मेरी,
और मैं,
कुछ भी हैं तुमसे न माँगते,
कुछ भी नहीं --
एक और लोक से :
मात्र यही
सागर पर का प्रकाश,
सागर पर नंगे पाव रश्मियाँ;
और निद्रित भूमि यह ।