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रहने दो दूर कहीं सार / अमरेन्द्र
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रहने दो दूर कहीं सारे शृंगार आज
जाने क्यों पागल है मेरा ये प्यार आज।
जूड़े में गूँथो मत गजरे इन हाथों से
महकेगी रात आज दोनों की बातों से
कंगन ये, बिछुवे ये, बाजूबन्द रहने दो
सबके सब जाने क्यों लगते हैं भार आज।
चन्दन का इत्रा आज रहने दो, रहने दो
कस्तूरी देह-गन्ध बान्धो मत, बहने दो
मेंहदी-महावर रचाओ न पैरों में
जबकि खुद लगती हो रक्तिम कचनार आज।
ढलती है रात, जैसे आयु ही ढलती है
तुम बिन तो चाँदनी चिता-सी ये जलती है
देना है, लेना है, जो कुछ भी ले-दे लो
शेष रहे बाकी न कोई उधार आज।