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राग बसंत / पद / कबीर

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सो जोगी जाकै सहज भाइ, अकल प्रीति की भीख खाइ॥टेक॥
सबद अनाहद सींगी नाद, काम क्रोध विषया न बाद।
मन मुद्रा जाकै गुर को ग्यांन, त्रिकुट कोट मैं धरत ध्यान॥
मनहीं करन कौं करै सनांन, गुर को सबद ले ले धरै धियांन।
काया कासी खोजै बास, तहाँ जोति सरूप भयौ परकास॥
ग्यांन मेषली सहज भाइ, बंक नालि को रस खाइ।
जोग मूल कौ देइ बंद, कहि कबीर थीर होइ कंद॥377॥

मेरी हार हिरानौ मैं लजाऊँ, सास दुरासनि पीव डराऊँ॥टेक॥
हार गुह्यौ मेरौ राम ताग, बिचि बिचि मान्यक एक लाग॥
रतन प्रवालै परम जोति, ता अंतरि लागे, मोति॥
पंच सखी मिलिहै सुजांन, चलहु त जइये त्रिवेणी न्हान।
न्हाइ धोइ कै तिलक दीन्ह, नां जानूं हार किनहूँ लीन्ह॥
हार हिरांनी जन बिमल कीन्ह, मेरौ आहि परोसनि हार लीन्ह।
तीनि लोक की जानै पीर, सब देव सिरोमनि कहै कबीर॥378॥

नहीं छाड़ी बाबा राम नाम, मोहिं और पढ़न सूँ कौन काम॥टेक॥
प्रह्लाद पधारे पढ़न साल, संग सखा लीये बहुत बाल।
मोहि कहा पढ़ाव आल जाल, मेरी पाटी मैं लिखि दे श्री गोपाल॥
तब सैनां मुरकां कह्यौ जाइ, प्रहिलाद बँधायौ बेगि आइ।
तूँ राम कहन की छाड़ि बांनि, बेगि छुड़ाऊँ मेरो कह्यौ मांनि॥
मोहि कहा डरावै बार बार, जिनि जल थल गिर कौ कियौ प्रहार॥
बाँधि मोरि भावै देह जारि, जे हूँ राम छाड़ौ तौ गुरहि गार।
तब काढ़ि खड़ग कोप्यौ रिसाइ, तोहि राखनहारौ मोहि बताइ॥
खंभा मैं प्रगट्यो गिलारि, हरनाकस मार्यो नख बिदारि॥
महापुरुष देवाधिदेव नरस्यंध प्रकट कियौ भगति भेव।
कहै कबीर कोई लहै न पार, प्रहिलाद उबार्यौ अनेक बार॥379॥

हरि कौ नाउँ तत त्रिलोक सार, लौलीन भये जे उतरे पार॥टेक॥
इक जंगम इक जटाधार, इक अंगि बिभूति करै अपार।
इक मुनियर इक मनहूँ लीन, ऐसै होत होत जग जात खीन॥
इक आराधै सकति सीव, इक पड़वा दे दे बधै जीव॥
इक कुलदेव्यां कौ जपहि जाप, त्रिभवनपति भूले त्रिविध ताप॥
अंतहि छाड़ि इक पीवहि दूध, हरि न मिलै बिन हिरदै सूध।
कहै कबीर ऐसै बिचारि, राम बिना को उतरे पार॥380॥

हरि बोलि सूवा बार बार, तेरी ढिग मीनां कछूँ करि पुकार॥टेक॥
अंजन मंजन तजि बिकार, सतगुर समझायो तत सार॥
साध संगति मिली करि बसंत, भौ बंद न छूटै जुग जुगंत॥
कहै कबीर मन भया अनंद, अनंत कला भेटे गोब्यंद॥381॥

बनमाली जानै बन की आदि, राम नाम बिना जनम बादि॥टेक॥
फूल जू फुले रूति बसंत, जामैं मोहिं रहे सब जीव जंत।
फूलनि मैं जैसे रहै बास, यूँ घटि घटि गोबिंद है निवास॥
कहै कबीर मनि भया अनंद, जगजीवन मिलियौ परमानंद॥382॥


मेरे जैसे बनिज सौ कवन काज,
मूल घटै सिरि बधै ब्याज॥टेक॥
नाइक एक बनिजारे पाँच, बैल पचीस कौ संग साथ।
नव बहियां दस गौनि आहि, कसनि बहत्तरि लागै ताहि॥
सात सूत मिलि बनिज कीन्ह, कर्म पयादौ संग लीन्ह॥
तीन जगति करत रारि, चल्यो है बनिज वा बनज झारि॥
बनिज खुटानीं पूँजी टूटि, षाडू दह दिसि गयौ फूटि॥
कहै कबीर यहु जन्म बाद, सहजि समांनूं रही लादि॥383॥

माधौ दारन सुख सह्यौ न जाइ, मेरौ चपल बुधि तातैं कहा बसाइ॥टेक॥
तन मन भीतरि बसै मदन चोर, जिनि ज्ञांन रतन हरि लीन्ह मोर।
मैं अनाथ प्रभू कहूँ काहि, अनेक बिगूचै मैं को आहि॥
सनक सनंदन सिव सुकादि, आपण कवलापति भये ब्रह्मादि॥
जोगी जंगम जती जटाधर, अपनैं औसर सब गये हैं हार॥
कहै कबीर रहु संग साथ, अभिअंतरि हरि सूँ कहौ बात॥
मन ग्यांन जांति कै करि बिचार, राम रमत भौ तिरिवौ पार॥384॥

तू करौ डर क्यूँ न करे गुहारि, तूँ बिन पंचाननि श्री मुरारि॥टेक॥
तन भीतरि बसै मदन चोर, तिकिन सरबस लीनौ छोर मोर॥
माँगै देइ न बिनै मांन, तकि मारै रिदा मैं कांम बांन॥
मैं किहि गुहराँऊँ आप लागि, तू करी डर बड़े बड़े गये है भागि॥
ब्रह्मा विष्णु अरु सुर मयंक, किहि किहि नहीं लावा कलंक॥
जप तप संजम सुंनि ध्यान, बंदि परे सब सहित ग्यांन॥
कहि कबीर उबरे द्वे तीनि, जा परि गोबिंद कृपा कीन्ह॥385॥

ऐसे देखि चरित मन मोह्यौ मोर, ताथैं निस बासुरि गुन रमौं तोर॥टेक॥
इक पढ़हिं पाठ इक भ्रमें उदास इक नगन निरंतर रहै निवास॥
इक जोग जुगति तन हूंहिं खीन, ऐसे राम नाम संगि रहै न लीन॥
इक हूंहि दीन एक देहि दांन, इक करै कलापी सुरा पांन॥
इक तंत मंत ओषध बांन, इक सकल सिध राखै अपांन॥
इक तीर्थ ब्रत करि काया जीति, ऐसै राम नाम सूँ करै न प्रीति॥
इक धोम धोटि तन हूंहिं स्यान, यूँ मुकति नहीं बिन राम नाम॥
सत गुर तत कह्यौ बिचार, मूल गह्यौ अनभै बिसतार॥
जुरा मरण थैं भये धीर, राम कृपा भई कहि कबीर॥386॥

सब मदिमाते कोई न जाग, ताथे संग ही चोर घर मुसन लाग॥
पंडित माते पढ़ि पुरांन, जोगी माते धरि धियांन॥
संन्यासी माते अहंमेव, तपा जु माते तप के भेव॥
जागे सुक ऊधव अंकूर, हणवंत जागे ले लंगूर॥
संकर जागे चरन सेव, कलि जागे नांमां जेदेव॥
ए अभिमान सब मन के कांम, ए अभिमांन नहीं रही ठाम॥
आतमां रांम कौ मन विश्राम, कहि कबीर भजि राम नाम॥387॥

चलि चलि रे भँवरा कवल पास, भवरी बोले अति उदास॥टेक॥
तैं अनेक पुहुप कौ लियौ भोग, सुख न भयौ तब बढ़ो है रोग॥
हौ जु कहत तोसूँ बार बार, मैं सब बन सोध्यौ डार डार॥
दिनां चारि के सुरंग फूल, तिनहिं देखि कहा रह्यौ है भूल॥
या बनासपती मैं लागैगी आगि, अब तूँ जैहौ कहाँ भागि॥
पुहुप पुरांने भये सूक तब भवरहि लागी अधिक भूख।
उड़îो न जाइ बल गयो है छूटि, तब भवरी रूंना सीस कूटि॥
दह दिसी जोवै मधुप राइ, तब भवरी ले चली सिर चढ़ाइ॥
कहै कबीर मन कौ सुभाव, राम भगति बिन जम को डाव॥388॥

आवध राम सबै करम करिहूँ,
सहज समाधि न जम थैं डरिहूँ ॥टेक॥
कुंभरा ह्नै करि बासन धरिहूँ, धोबी ह्नै मल धोऊँ।
चमरा ह्नै करि बासन रंगों, अघौरी जाति पांति कुल खोऊँ॥
तेली ह्नै तन कोल्हूं करिहौ, पाप पुंनि दोऊ पेरूँ॥
पंच बैल जब सूध चलाऊँ, राम जेवरिया जोरूँ॥
क्षत्री ह्नै करि खड़ग सँभालूँ, जोग जुगति दोउ सांधूं॥
नउवा ह्नै करि मन कूँ मूंडूं, बाढ़ी ह्नै कर्म बाढ़ूँ॥
अवधू ह्नै करि यह तन धूतौ, बधिक ह्नै मन मारूँ॥
बनिजारा ह्नै तन कूँ बनिजूँ, जूवारी ह्नै जम जारूं॥
तन करि नवका मन करि खेवट, रसना करउँ बाड़ारूँ॥
कहि कबीर भवसागर तरिहूँ आप तिरू बष तारूँ॥389॥