भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रात, डर और सुबह / नेहा नरुका

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अक्सर आधी रात को मैं डरावने ख़्वाब देखती हूँ
मैं देखती हूँ मेरी सारी पोशाकें खो गई हैं
और मैं कोने में खड़ी हूँ नंगी
मैं देखती हूँ कई निगाहों के सामने ख़ुद को घुटते हुए

मैं देखती हूँ मेरी गाड़ी छूट रही है
और मैं बेइन्तहा भाग रही हूँ उसके पीछे
मैं देखती हूँ मेरी सारी किताबें फटी पड़ी हैं ज़मीन पर
और उनसे निकलकर उनके लेखक लड़ रहे हैं, चीख़ रहे हैं, तड़प रहे हैं
पर उन्हें कोई देख नहीं पा रहा

मैं देखती हूँ मेरे घर की छत, सीढ़ियाँ और मेरा कमरा ख़ून से लथपथ पड़ा है
मैं घबराकर बाहर आती हूँ
और बाहर भी मुझे आसमान से ख़ून रिसता हुआ दिखता है

अक्सर आधी रात को मुझे डरावने ख़्वाब आते हैं
और मैं सो नहीं पाती
मैं दिन भर ख़ुद को सुनाती हूँ हौसलों के क़िस्से
दिल को ख़ूबसूरती से भर देने वाला मखमली संगीत
पर जैसे-जैसे दिन ढलता है,
ये हौसले पस्त पड़ते जाते हैं

और रात बढ़ते-बढ़ते डर कर लेता है क़ब्ज़ा मेरे पूरे वजूद पर
मैं बस मर ही रही होती हूँ तभी
मेरी खिड़की से रोशनी दस्तक देती है
और मेरा ख़्वाब टूट जाता है—

अक्सर…