रातों को नींद नहीं आती है... / नवनीत नीरव
रातों को नींद नहीं आती है...
रातों को नींद नहीं आती है ,
सहमा-सहमा सा बीतता है हरेक पल,
जलती हुई सूजी बोझिल आँखें,
पर नींद गुमनाम सी गुमशुदा,
कोई काम पूर्ण हो ऐसा नहीं है,
इधर-उधर की सोच में उलझता हूँ,
अकेलापन धीरे-धीरे मार रहा मुझे,
नियमित दिनचर्या और अनुशासन भंग कर,
सूखे गले और मुरझाते तैलीय चेहरे ,
हर बार तर करता हूँ,
बाहर की गैलरी में थोड़ी देर टहलता हूँ.
पर कमबख्त नींद नहीं आती है.
एक खड्का-सा लगता है,
चौंकता हूँ अपनी जगह पर बैठे-बैठे,
सहसा एक नजर खिड़की की तरफ,
रात एक टक निहारे जा रही है बाहर से,
कोई खुशबू सी आती है रह- रहकर,
दरवाजे पर रतजगी रातरानी से,
मानों किसी प्रियतम के इंतजार में बैठी हो,
नहा-धो खुले केशों संग गमकती हुई,
धत्! ऐसा नहीं कहते रात में,
अपशकुन होता है, बुरा साया पड़ता है,
कौन समझाए भला कि इससे बुरा क्या ?
जब रातों को नींद नहीं आती है.