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रात / मंगलेश डबराल
Kavita Kosh से
बहुत देर हो गई थी
घर जाने का कोई रास्ता नहीं बचा
तब एक दोस्त आया
मेरे साथ मुझे छोड़ने
अथाह रात थी
जिसकी कई परतें हमने पार कीं
हम एक बाढ़ में डूबने
एक आँधी में उड़ने से बचे
हमने एक बहुत पुरानी चीख़ सुनी
बन्दूकें देखीं जो हमेशा
तैयार रहती हैं
किसी ने हमें जगह जगह रोका
चेतावनी देते हुए
हमने देखे आधे पागल और भिखारी
तारों की ओर टकटकी बाँधे हुए
मैंने कहा दोस्त मुझे थामो
बचाओ गिरने से
तेज़ी से ले चलो
लोहे और ख़ून की नदी के पार
सुबह मैं उठा
मैंने सुनी दोस्त की आवाज़
और ली एक गहरी साँस ।
(1989)