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रात के दो अढ़ाई बजे / कपिल भारद्वाज

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रात के दो-अढ़ाई बजे,
महताब के शबाब के समय,
अचानक याद आ जाती है मुझे,
एक शराब और एक किताब,
दोनों ही का खुमार, बरसों से है तारी ।

किताब पढ़ना जैसे शराब पीना घूंट-घूंट,
हर हर्फ़ से आती है गुड़ और गेहूं की गंध,
सामने फैली चांदनी से ही,
घायल तितलियों का जोड़ा अक्सर डूब जाता है,
उसी शराब की खुश्बू में,
जिसे पढ़ने की कोशिश में,
इच्छाओं के मासूम जुगनू विलीन हो गए,
घनघोर अँधेरे में ।