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रावण ओर मंदोदरी / तुलसीदास / पृष्ठ 3
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रावण ओर मंदोदरी
( छंद संख्या 21 से 22 )
(21)
गहनु उज्जारि , पुरू जारि, सुतु मारि तव,
कुसल गो कीसु बर बैरि जाको।
दूसरो दूतु पनु रोपि कोपेउ सभाँ,
खर्ब कियो सर्बको , गर्बु थाको।।
दासु तुलसी सभय बदत मयनंदिनी,
मंदमति कंत, सुनु मंतु म्हाको।
तौलौं मिलु बेगि, नहि जौलौं रन रोष भयो,
दासरथि बीर बिरूदैत बाँको।21।
(22)
काननु उजारि , अच्छु मारि, धारि धूरि कीन्हीं,
नगरू प्रजार्यो , सो बिलोक्यो बलु कीसको।
तुम्हैं बिद्यमान जातुधानमंडली कपि,
कोपि रोप्यो पाउ, सो प्रभाउ तुलसीको।।
कंत! स्ुनु मंतु कुल-अंतु किएँ अंत हानि,
हातो कीजै हीयतें भरोसो भुज बीसको।
तौलौं मिलु बेगि जौलौं चापु न चढ़ायो राम,
रोषि बानु काढ्यो न दलैया दससीसको।22।