रैन अँधेरी, पंथ अजाना, राही चलता रहा रात भर
यह अमंद आलोक, सिहरते-
तारों की पीड़ा का कम्पन
आहत मन की व्यथा-तरंगों-
का निःशब्द करूण आलिंगन
रिसती पीड़ा हेर-हेर कर, कर दी सारी धरा तर-बतर
झरते रहे अश्रु, अम्बर का दर्द पिघलता रहा रात भर
छाया का भी साथ नहीं था
दिखता अपना हाथ नहीं था
मर्मर-ध्वनि के साथ इसलिये-
झरता पीला पात नहीं था
आहों की समिधा, आँसू का हवि डाला था विरह-यज्ञ में
लपटें थीं न, धुआँ था केवल, हिया सुलगता रहा रात भर
ऐसी बात नहीं कि जिन्दगी-
में बौछार नहीं आयी थी,
तन-दीये में प्राण-वर्तिका-
सुख ने थोड़ी उकसायी थी
डाही जग को अलमस्ती की दो घडि़याँ भी चुभीं शूल-सी
मधुर मिलन से उसके मन का चैन धधकता रहा रात भर
बाँध न पायी जड़ नियमों-
की जंजीरें दुनिया हरजाई
प्रिय-प्रसंग की पुष्पित-
घाटी में, हँसकर बारूद बिछाई
प्यारभरे पल जले तूल-से, छले गये अपनी कुभूल से
विरह-व्यथा के विकृत मुख को मैं तकता ही रहा रात भर
कोई बात नहीं, सुख-चैन-
छिना, धधका कोमल उर-अंतर
है इतना संतोष-जलाने
वालों ने सुख पाया क्षण भर
गोरे तन पर भस्म रमा कर, जग के हाथों दीप थमा कर
तिमिर-चीर ओढ़े यायावर प्राण पुलकता रहा रात भर