भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राहुल होना खेल नहीं / कैलाश गौतम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राहुल होना खेल नहीं, वह सबसे अलग निराला था,
अद्भुत जीवट वाला था, वह अद्भुत साहस वाला था ।

रमता जोगी बहता पानी, कर्मयोग था बाँहों में,
होकर जैसे मील का पत्थर, वह चलता था राहों में ।

मुँह पर चमक आँख में करुणा, संस्कार का धनी रहा,
संस्कार का धनी रहा, वह मान-प्यार का धनी रहा ।

बाँधे से वह बँधा नहीं, है घिरा नहीं वह घेरे से,
जलता रहा दिया-सा हरदम, लड़ता रहा अँधेरे से ।

आँधी आगे रुका नहीं, वह पर्वत आगे झुका नहीं,
चलता रहा सदा बीहड़ में, थका नहीं वह चुका नहीं ।

पक्का आजमगढ़िया बाभन, लेकिन पोंगा नहीं रहा,
जहाँ रहा वह रहा अकेला, उसका जोड़ा नहीं रहा ।

ठेठ गाँव का रहने वाला, खाँटी तेवर वाला था,
पंगत मे वह प्रगतिशील था, नये कलेवर वाला था ।

जाति-धर्म से ऊपर उठ कर, खुल कर हाथ बँटाता था,
इनसे उनसे सबसे उसका, भाई-चारा नाता था ।

भूख-गरीबी-सूखा-पाला, सब था उसकी आँखों में,
क्या-क्या उसने नहीं लिखा है, रह कर बन्द सलाखों में ।

साधक था, आराधक था, वह अगुआ था, अनुयायी था,
सर्जक था, आलोचक था, वह शंकर-सा विषपायी था. ।

सुविधाओं से परे रहा, वह परे रहा दुविधाओं से,
खुल कर के ललकारा उसने, मंचों और सभाओं से ।

माघ-पूस में टाट ओढ़ कर जाड़ा काटा राहुल ने,
असहायों लाचारों का दुःख हँस कर बाँटा राहुल ने ।

कौन नापने वाला उसको, कौन तौलने वाला है?
जिसका कि हर ग्रन्थ हमारी आँख खोलने वाला है ।

परिव्राजक, औघड़, गृहस्थ था, वह रसवन्त वसन्त रहा,
जीवन भर जीवन्त रहा वह, जीवन भर जीवन्त रहा ।