भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रिश्ते / ऋचा दीपक कर्पे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने सुना था,
रिश्ते रेत जैसे होते है
मुट्ठी में पकड़ो
तो फिसल जाते हैं..

पतंग जैसे होते हैं,
ढील नही दी
तो ऊँचा उड़ नही पाते हैं..

दिये के जैसे होते हैं
ढांकने की कोशिश करो,
तो बुझ जाते हैं...

मैंने
रेत को हथेली पर रखा
वह फिसल गई...
पतंग को ढील दी
वह कट गई...
हवा का झोंका आया
और बुझ गया दिया...

मैं हैरान थी
इन मायनो से..
उलझता ही जा रहा था
तानाबाना रिश्तों का
जो परे था
मेरी समझ से

तभी कोई आया
और हौले-से
कह गया कानों में,
रिश्ते पेड़ की तरह होते हैं,
इन्हें जितना सहेजो,
जितना सींचो
उतने हरे भरे होते हैं...
मीठे फल देते हैं।

इससे पहले कि
समझ पाती मैं कुछ
आँखें सींचने लगी
हमारे रिश्ते का
नन्हा-सा पौधा…