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रेत / हरीश बी० शर्मा
Kavita Kosh से
तपती सहती रेत
तड़पती, जलती रहती है
कहती नहीं कुछ
रहती है मौन
होती है बारिश
टूटता है मौन
रेत हो जाती है मुखर
फैलने लगती है उमस
पसीना छूट जाता है
भले-भलों का।