भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रेत के विस्तार में / नवनीत पाण्डे
Kavita Kosh से
रेत के विस्तार में
रहा निरंतर खोजता
एक और आदमी
रेत कांपी, हिली, उलटी
उगल दिए रेत ने
आदमी ही आदमी
सो रहे थे जाने कब से
रेत के आगोश में
रेत के विस्तार में