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रेत महल कंगूरे पर / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

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रेत महल के कंगूरे पर

केवल एक
पलक की दूरी
बीच तुम्हारे मेरे प्रियतम
 किन्तु न जाने क्यों सारा जग
सूना सूना सा लगता है

साँस साँस में गन्ध तुम्हारी
पोर पोर में आस भरी है
धड़कन धड़कन में अपनापन
चितवन चितवन प्यास भरी है
प्रतिदिन मन के व्योम पटल पर
सुधि का इन्द्रधनुष खिलता है

तुम मुझमें हो मेै तुममें हूँ
अंग अंग में महक घुली है
समय शिला के नीरव तल पर
एक अमिट चांदनी खिली है
कुशल संदेशा पुरवाई के
हाथों रोज रोज मिलता है

रजनीगंधा रोेज रात में
घर आंगन महका जाती है
बाकी बची साध जो मेरी
उसको भी बहका जाती है
रेतमहल के कंगूरे पर
रोज नया सूरज उगता है