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रोज़ / बालस्वरूप राही

मैं रोज़ वक्ष पर चोट मरण की सहता हूँ
तुम डरती हो जीवन के मधुर प्रहारों से।

मैंने पथ के हर शूल, धूलि-कन पत्थर को
अपने पांवों से छू कर फूल बना डाला
हर अंगारे को मैंने बढ़ कर दुलराया
हर आँधी को पहनाई स्वागत की माला।

मैं पतझड़ को भी मीत हृदय का कहता हूँ
तुम डरती हो रानी, मासूम बहारों से।

ले हाथों में पतवार लहर की मैं तिरता
मंझधार तरी है मेरी भँवर किनारा है
जब जब सागर में ज्वार उठा भीषण सहसा
मैं समझ गया प्रिय तुम ने मुझे पुकारा है।

मैं आँधी तूफानों में हंस कर बहता हूँ
तुम डरती हो मधुरे निर्दोष किनारों से।

जब आसमान में गहन अमावस घिरती है
मैं स्वयं डगर पर दीपक बनकर जलता हूँ
छल जाता हूँ जब पथ का हर संगी-साथी
मदभरे गीत को मीत बना कर चलता हूँ।

मैं स्वयं तप्त अंगारे-सा प्रिय, दहता हूँ
तुम डरती हो अम्बर के चांद सितारों से।

जग वालों ने ठुकराया मुझको बार बार
मैं हर मानव पर अपना प्यार लुटा आया
जिस ने बिखराये तीक्ष्ण शूल मेरे पथ पर
उस पर ही मधुऋतु का श्रृंगार लुटा आया।

अनजान परायों में भी मैं खुश रहता हूँ
तुम डरती हो अपनों के मौन इशारों से।

मैं रोज़ वक्ष पर चोट मरण की सहता हूँ
तुम डरती हो जीवन के मधुर प्रहारों से।