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रोज़ ही झरते हैं / रमेश रंजक
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रोज़ ही झरते हैं शहतूत के पत्ते झर-झर
एक लमहे को लहर जाती है रूहानी लहर ।
हलकी टहनी से उतरते हैं पतंगों की तरह
और गिरते हैं, खड़कते हैं, नहीं करते जिरह
मेरे आँगन में ठुमकती है एक सालगिरह
एक बचपन के बुढ़ापे की लरज शामोसहर ।
आधे पीले हैम हरे, आधे ज़िन्दा हैं मरे
जब भी झाड़ू से बुहारूँ तो यही स्वर उभरे
एक छोटी-सी नसीहत है अमल कौन करे...
ज़िन्दगी, लफ़्ज़ के ईमान की पुरज़ोर बहर ।