भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रोज गूंथती हूं पहाड़ / मनीषा जैन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोज गूंथती हूं
मै कितने ही पहाड़
आटे की तरह

बिलो देती हूं
जीवन की मुश्किलें
दूध-दही की तरह

बेल देती हूं
रोज ही
आकाश सी गोल रोटी

प्यार की बारिश में
मैं सब कुछ कर सकती हूं
सिर्फ तुम्हारे लिए।