लखीमपुर में कविता / दिनकर कुमार
बारिश रुकी हुई थी खेलामाटी में
हमारी अगवानी करने के लिए
बून्दों ने चूमा समूचे शरीर को
धुल गई सारी कलुषता
अरुणाचली महिला के चेहरे पर
खिले फूलों को देख रहा था
जो सड़क किनारे बैठी मनिहारन
के गले की ताबीज को छू रही थी
अब सो गए होंगे सारे पेड़
रात भर जो दुहरा रहे थे प्रार्थना
जिसे सुना रवीन्द्र बरा ने
सुना था नीलमणि फुकन ने
शहर भी नहीं, गाँव भी नहीं, क़स्बा भी नहीं
पगडंडियों ने कहा मुसाफ़िर
थोड़ी-सी हरियाली अपने साथ ले जाओ
पतझड़ के मौसम में काम आएगी
जब कविता फैलने वाली थी सुगन्ध बनकर
तब पालकी से राजा उतरे और
उनके सिपाहियों ने घेर लिया इलाके को फिर
भाषण आश्वासन का दौर चला
समय पर शुरू नहीं हो सका कार्यक्रम
पर गुलाल की तरह पुती हुई थी कविता
मासूम चेहरों पर जिनकी आँखों में
चमक रही थी कविता सिर्फ़ कविता
और ब्रह्मपुत्र का उत्तरी छोर है
जहाँ अन्धेरा है विषाद है और
कागज़ी फूल जैसी आज़ादी है और
कविता कोमल हथेलियों में चिंगारी की तरह है ।