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लचर नाराज़ी / महेश उपाध्याय
Kavita Kosh से
सीढ़ियों से उतरकर काग़ज़
पसर जाते हैं
उछल कर नारे हवा में
ठहर जाते हैं
काम कुछ होता नहीं है कहीं
मन्त्र सब मन्त्रीकरण ने
कवच कर डाले
कौन डाले बेवजह फिर
पाँव में छाले
ढूँढ़ता फन्दा
किसी निर्दोष की गर्दन
पाहुना सोता नहीं है कहीं
अधबिकी बैसाखियों की
यह हवाबाज़ी
कुछ नशीली कुर्सियों की
लचर नाराज़ी
पसलियों को तोड़
करती बन्द दरवाज़े
आदमी रोता नहीं है कहीं