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लड़का / प्रयाग शुक्ल
Kavita Kosh से
सीढ़ियाँ चढ़कर जाता है वह लड़का
धम-धम करता दरवाज़ा।
जगा देता हमें नींद से--
अपनी चमकती आँखों के साथ,
कुछ पूचता, बताता
फिर खड़ा हो जाता चुपचाप दीवार
के पास,
देखता हमें।
'हम गए थे बहुत दूर,
घूम कर आए बहुत दूर सचमुच'
देखता खिलौनों को, धूप के रंग को
'कितना अछ्छा है यह रंग'
आँख खोलकर हम कुछ देखें, अच्छी तरह
इससे पहले ही चला जाता है
बरामदे में, पुकारता किसी को,
वह लड़का।