भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लड़ते हुए सिपाही का गीत / ब्रजमोहन
Kavita Kosh से
लड़ते हुए सिपाही का गीत बनो रे
हारना है मौत तुम जीत बनो रे ...
फूलों से खिलना सीखो, पँछी से उड़ना
पेड़ों की छाँव बनके, धरती से जुड़ना
पर्वत से सीखो कैसे चोटी पे चढ़ना
गेहूँ के दानों-सी प्रीत बनो रे ...
जब बैठे-बैठे आँखें भर आएँ दुख से
फिर सोचना दिन कैसे बीतेंगे सुख से
दुख की लकीरें मिट जाएँगी मुख से
सूरज-सा उगने की रीत बनो रे ...
माथे पे छलके भाई जब भी पसीना
इक पल हवाओं के भी ओठों पर जीना
तब देखना रे कैसे फूलेगा सीना
सीने में धड़के जो संगीत बनो रे ...
पाप का घड़ा तो आख़िर फूटेगा भाई
पापी किस-किस से फिर छूटेगा भाई
कोई लुटेरा कब तक लूटेगा भाई
ख़ून-पसीने के मीत बनो रे ...