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लन्दन डायरी-11 / नीलाभ
Kavita Kosh से
यहाँ, इस सर्द शहर की
अनजान सड़कों पर भटकता हुआ
याद करता हूँ मैं
उन रातों को,
दूसरे शहर की,
जब तुम्हारी आँखों में
मैं देखता था ब्रह्माण्ड
इस विदेशी आकाश के नीचे
भटकता हुआ
मैं याद करता हूँ
वह समय
जो तुम्हारे पहलू में बिताया मैंने
तुम्हारी देह पर
अपनी उपस्थिति अंकित करते हुए
तुम्हें एक औज़ार की तरह
गढ़ते हुए
एक खिड़की की तरह
खोलते हुए
अपने हाथों में महसूस करते हुए
तुम्हारे हाथों की गर्मी
और अपनी आँखों में
तुम्हारी पुतलियों से छन कर आता हुआ
विश्वास