भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लफ्ज़ की कश्तियाँ / साहिल परमार
Kavita Kosh से
दीप जलते रहे, हम पिघलते रहे
ख़ैर, आँसुओं की महफिल तो चलती रही
खास बातें तो ऐसी नहीं थीं मगर
वो ही बातें ज़मीं में पनपती रहीं
मेरी माँ ने मुझे पाला था उस तरह
याद उनकी मेरे दिल में पलती रही
सर में तूफ़ान था दिल में उफ़ान था
फिर वो ही आग क्यूँ ठण्ड बनती रही
मेरे पैरों ने चलना मना कर दिया
मंज़िलें मेरी नब्ज़ों में खलती रहीं
रोते - रोते मेरे हाथ भर आए और
लफ्ज़ की कश्तियाँ फिर उछलती रहीं
मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार