मद की सुगन्धि से खिंचे हुए भौंरों ने
कुंकुम का रेणु लगा-
मन्त्रगु´्जरण कर घेर लिया फूलों को।
मन्द-मन्द सुलग कर-
आम्र-म´्जरियों में मदन के बाण लगे।
सम्मोहन मन्त्र से-
धरती और गगन को वश में कर।
दौड़ गई आकुल हिलोर-सी,
आवर्त्तों का वितान पूरा कर।
नशा बरसाता है कैसा यह वशीकरण?
रेखाबिन्दुवर्तना का अलंकरण उन्मादन।
उत्कीर्ण पल्लवित लताओं के आनन पर।
व्याकुलता दिन के अवसान की-
डूब रही सन्ध्या की तिमिरलेखाओं में।
ध्वनित है अन्तर में तुम्हारी व्यथा।
मेरी ओर देख कर एक बार बोलो तो।
नहला दो मन्द मुस्कान से।
थके हुए पथिक को रागसुधासागर में-
धोकर विषाद की धूल को।
प्राण-स´्चार कर, विष मूर्च्छा दूर करो।
अर्पित करता अरण्य दिनमणि को-
जैसे पर्णा´्जलि में फूलों को।
वैसे तुम मुझको दो होने के लिए धन्य।
जो कुछ तुम्हारा है, सब कुछ दो।
अन्तरंग वरण करो अपने को देकर तुम।
बजता तुम्हारा मुरज अहोरात्र अन्तर में।
मुझसे क्या भिन्न तुम बोलो तो?