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लाल पतंग / देव प्रकाश चौधरी
Kavita Kosh से
भागता हुआ दिन
ठहरी हुई-सी रात
सिरहाने रखी एक पोटली
कुछ चिथड़े सुख
सम्बंधों के कुछ
बनते-बिखरे भंवर।
हर रात
ओस को क्यों चाहिए
कुछ कांटों की नोक?
हमें अब
सपनों की सड़क पर
चाहिए मील का पत्थर।
हमें चाहिए
सपनों की रफ़्तार का
कोई मीटर।
अपने अकेलेपन से घबराकर
तार में उलझ गई
लाल पतंग
और लगातार भागी जा रही है
सुविधा के वे वर्ष
जो सरकार के
बहीखाते में भी है दर्ज।
लगता है आईने की पीठ से
उतर गई है सारी कलई
चेहरा जाना-पहचाना भर लगता है
बिजली के तार में
पतंग और उलझती जा रही है।