भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लाल पसीना / बुद्धिनाथ मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जहाँ गिरा है लाल पसीना ।
वह काशी है, वही मदीना ।
नाम देश का भले और हो
वह भारत है, ताने सीना ।

अनपढ़ और गंवार भले था
गिरमिटिया लोगों का जत्था
तुलसी के रामजी साथ थे
फिर क्यों समझें उन्हें निहत्था ।
जहाँ गए हम, नई भूमि पर
नए सिरे से सीखा जीना ।

छोटा है भूगोल भले ही
भारत का इतिहास बड़ा है
नहीं तख़्त के लिए आज तक
हमने सच के लिए लड़ा है ।
धोखा बार-बार खाया पर
नहीं किसी का है हक़ छीना ।

हम तो अमरबेल हैं, केवल
साँस ले सकें, इतना काफ़ी
खाली हाथ न लौटे साधू --
श्वान द्वार से, इतना काफ़ी ।
कभी नहीं आराम लिखा है
सावन हो या जेठ महीना ।