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लिखता हूँ प्रेम / प्रदीप मिश्र

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लिखता हूँ प्रेम


सूरज की नन्हीं किरणें
उतर आयीं हैं चेहरों पर
दरारों से आती हवा
फेफड़ों में ताकत की तरह भर रही है

खेतों की तरफ जा रहे हैं किसान
त्यौहारों की तैयारी कर रहा है गाँव
कारखानों से चू रहा है पसीना
चूल्हों को इतमिनान है
अगले दिन की रोटी का
टहल कर
घर लौट रहे हैं पिताजी

सुबह की चाय के साथ अख़बार
बेहतर दिनों के स्वाद की तरह लग रहा है
कलम के आस-पास जुटे हुए अक्षर
प्रेम कविता के लिए
आग्रह कर रहे है

लिखता हूँ प्रेम
और ख़त्म हो जाती है स्याही ।