लिखने तो दे / शैलजा सक्सेना
वो लिखती चली जाती है कविता
हर रोज़!
हर रोज,
उमड़ता है एक सागर
उसके भीतर,
दीवारों के पलस्तर सी यादों को
साथ ले,
बुहारता चलता है
घर, आँगन, सामने का तुलसी चौरा,
कोने की बँधी गैया,
बाहर का कुआँ...
सब बहते चलते हैं उसकी यादों के सागर में,
यहाँ अम्मा ने बनाये थे
बेसन के गट्टे,
यहाँ टूटा था घड़ा गेंद से..
इसी नीम के नीचे झुकी थीं आँखॆं,
वो रहा आम, जिस के पीछे छुप के खड़ी थी
अपनी साँसों और
पतंग से उड़ते सपनों को साधती...!
वो सब लिख देना चाहती है
भोर का रंग, दोपहर की तपन
साँझ की उम्मीद, रात के आँसू सब
.......
फिर..क्या होगा अम्मा?
लिख देगी तो हो जायेगी हल्की?
छुटकी ने टोहका लगाया, कहानी सुनाती अम्माँ को!
माँ खोयी देखती रही उसकी ओर
जैसे
किसी ने हाथ थाम लिया हो उसका!
बताओ न फिर क्या होगा?
छुटकी जानना चाहती थी
लिखने का भविष्य ?
लड़की का भविष्य ?
लड़की के लिखने का भविष्य..?
माँ
झुँझला गई,
इतनी बक-बक क्यों?
पहले लिखने तो दे,
फिर देखेंगे !
छोटी चुप....!!
माँ की आँखॆं,
कहीं दूर के आसमान पर
फिर कहानी लिखने लगीं !!