लिखा समय ने सारा मधुवन
लकड़कटों के नाम
कब आओगे शंख बजाने
ओ मेरे घनश्याम !
बहरी रैन हुए, दिन गूँगे
धूप समेटे पंख,
पानी पानी चीख़ रहे हैं
पड़े रेत पर शंख
पान, फूल, पत्तों पर पसरी
सन्नाटे की शाम
काली झील बदलता मौसम
आसमान बदरंग
हंसों के भी बदल गए हैं
रहन-सहन के ढंग
चितकबरी चीलों के डैने
बाँट रहे कोहराम
बुलबुल मैना कोयल भूली
अपनी मीठी तान,
हुआ-हुआ के बोल बेसुरे
खाए जाते कान,
माँग रहा सूरज धरती से
उजियारे के दाम
कब आओगे शंख बजाने
ओ मेरे घनश्याम !