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लिहाज़ / आशा कुमार रस्तोगी

कितने अल्फ़ाज़ मिटाए हैं यूँ लिखकर मैंने,
उनकी मर्ज़ी की है जो बात, वह जानूँ कैसे।

दिल में जो बात है, होठोँ पर मैं लाऊँ कैसे,
हद गुज़र जाए तो जज़्बात छुपाऊँ कैसे।

कुछ तो ये बात वह भी दिल से समझते होँगे,
ख़ौफ़-ए-रुसवा है मगर सबको, बताऊँ कैसे।

अभी तो शाम ढल रही है, कोई बात नहीं,
गर हुई रात, क्या कह दूँ कि घर जाऊँ कैसे।

यूँ तो ज़ाहिर है मेरी हसरत-ए-दीदार मगर,
देख लूँ उनको, तो ख़ुद को मैं बचाऊँ कैसे!