लूटा यश, क्या अपयश लूटा / जयप्रकाश त्रिपाठी
लूटा यश, क्या अपयश लूटा ।
मैंने अपना खोवा कूटा ।
इधर चकत्ता, उधर चकत्ती,
समय ने किया रत्ती-रत्ती,
कचर दिया भुर्ते के माफ़िक
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा..
मैंने अपना खोवा कूटा ।
हारा-थका नहीं मझधारा,
ख़ुद ओखल में सिर दे मारा,
मूसल-मूसल घान गिरी तो
आह-ऊह कर टूटा-फूटा..
मैंने अपना खोवा कूटा ।
क्या खोया, क्या पाया होगा,
कितना रुधिर बहाया होगा,
तरकस-तरकस तीर-सा तना,
अपनी ही छाती पर छूटा..
मैंने अपना खोवा कूटा ।
क्यों कोई जाने, पहचाने,
रहे न अपने ठौर-ठिकाने,
गूँगे कण्ठ लगा हकलाने,
जैसे पड़ा गले में खूँटा..
मैंने अपना खोवा कूटा ।
साबुत सारे जोगी-भोगी,
शायद और कुटाई होगी,
इनके बीच निहत्था-सा मैं,
कितना सच्चा, कितना झूठा..
मैंने अपना खोवा कूटा ।
बना कचूमर बहस-वाद में,
डूबा नथुने तक विषाद में,
कोई नहीं सगा बन पाया,
इनसे रूठा, उनसे रूठा..
मैंने अपना खोवा कूटा ।