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लेखनी, डरना नहीं तू / ब्रह्मजीत गौतम
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					लेखनी, डरना नहीं तू मौत की ललकार से 
क्रान्ति लानी है तुझे अपनी नुकीली धार से 
हम वो दीपक हैं, अँधेरों से है जिनकी दुश्मनी 
किंतु रखते उन्हें भी छाँव में हम प्यार से 
प्यार के बूटे खिलेंगे नफ़रतों की शाख पर 
अपने दुश्मन को नज़र-भर देखिये तो प्यार से 
सूखने असमय लगी हैं बालियाँ क्यों खेत की 
खेत ये महरूम क्यों हैं बादलों की धार से 
योजनाएँ तो बहुत बनती हैं जन-कल्याण की 
किन्तु वे इस पार आ पाती नहीं उस पार से 
यूँ न इतराओ, मुझी से है तुम्हारा ये उरूज  
ईंट बोली नींव की यों एक दिन मीनार से 
‘जीत’ पायेंगे वो कैसे ज़िन्दगी की जंग को   
हार बैठे हौसला जो इक ज़रा-सी हार से
	
	