समझने की बात थी
सुनाने को कहानी
जिसमें एक राजा था
और थी
एक गँवार स्त्री
राजा था प्रेम में
यही कहा राजा ने
मित्रों से मंत्री से
कहा यही सब से
स्त्री थी प्रेम में
यही कहा स्त्री ने
नदी से जंगल से
पर्वत से हवा से
दोनों थे प्रेम में
बात बड़ी सीधी थी सादी थी
कानोंकान फैल गई तन गई
और बात टूट गई
मित्र बहुत खुश थे
मंत्री बहुत खुश थे
और सब खुश थे करके प्रतिकार -
अच्छा हुआ बच गई महल की गरिमा
कुलीनता का अधिकार
नदी बहुत खुश थी
कि रहेगी मयस्सर
उसे अल्हड़ चाल
जंगल बहुत खुश थे
कि बँधेंगे फिर फिर
आजाद बाँहों में
पर्वत बहुत खुश थे
कि सुनेंगे जबतब
कस्तूरी छमक
हवा बहुत खुश थी
कि होगी अब भी साथ
गँवार खुशबूदार वो खिलखिल की खिलखिल
बीत गए साल
कई साल
न तो निराश था राजा
न ही गँवार स्त्री
क्योंकि प्रेम था बीचोबीच
और हुआ ऐसा
किसी से कह गया राजा
- गाती है गँवार स्त्री
नदी के साथ-साथ अब भी
बाप हो गया राजा
- गाती है गँवार स्त्री
जंगल के साथ-साथ अब भी
वृद्ध हो गया राजा
- गाती है गँवार स्त्री
पर्वत के साथ-साथ अब भी
हवा हो गया राजा
- गाती है गँवार स्त्री
हवा के साथ-साथ अब भी...
(ऐसी मनभावन प्रेमकथाएँ असंख्य
स्वयंसिद्ध किसी आदर्श पारस्परिकता से
धमकाती रहती हैं
बावजूद इसके
प्रेम करनेवाले
प्रेम करते रहते हैं
सुधारते हुए ऐसी लोककथाओं का अंत।)