भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लोग हँसते रहे / बाल गंगाधर 'बागी'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चाँद हँसता है क्या, हम नहीं जानते?
किसी स्वर्ग की हक़ीक़त, नहीं मानते

कोई जन्नत सी दुनिया न देखी कभी
जब धूप में पसीना न, सूखा कभी?
जब कभी हाथ से, दर्द छूटा नहीं
क्यों भरी आंख से खुशियां देखीं नहीं?

चाँद हँसता है क्या, हम नहीं जानते?
किसी स्वर्ग की हक़ीक़त, नहीं मानते

आंगनों में, जब किलकारियां सो गई
भूख की गोली खा, नींद लेती रहीं
मुझसे दुनिया अलग, क्या नहीं जानते?
इससे गहरा दर्द नींदों का, नहीं मानते

चाँद हँसता है क्या, हम नहीं जानते?
किसी स्वर्ग की हक़ीक़त, नहीं मानते

मेरे घर में कुछ सूखी लकड़ियां भी है
नींद को ढकने वाली गुदड़ियां भी हैं
क्यों सांस की आग में जलती रोटी मेरी
झड़ती आंखों से मोती की लड़ियां भी हैं

चाँद हँसता है क्या, हम नहीं जानते?
किसी स्वर्ग की हक़ीक़त, नहीं मानते

जख्मी चीजों को खामोश सुनते रहे
उनके पीड़ा की नदियां रहे झांकते
चाँ हँसता है क्या, हम नहीं जानते,
किसी कल्पना की दुनिया, नहीं मानते

चाँद हँसता है क्या, हम नहीं जानते?
किसी स्वर्ग की हक़ीक़त, नहीं मानते

लोग मेरी गरीबी पे हँसते रहे
मेरे आंसू के रंग शब्द लिखते रहे
फटी साड़ी में माँ लाज ढकती रही
फब्तियां लोग बहनों पर कसते रहे
मेरी ऊंची नज़र धूप खाती रही
हम दिल ही दिल में बिखरते रहे

चाँद हँसता है क्या, हम नहीं जानते?
किसी स्वर्ग की हक़ीक़त, नहीं मानते