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लोभिया / नवीन ठाकुर ‘संधि’

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सूझेॅ नै पाकै,
मतुर काम, क्रोध, मदलोभोॅ केॅ झाँकेॅ।
येॅहेॅ छेकै जिनगी रोॅ लीला,
जहाँ तहाँ गाड़ै छै कीला।
कब्बेॅ तक देतौं काम है निकम्मा निबाला,
एक दिन जाय लेॅ लागतौं ओकरें हवाला।
एक दिन निकलतौं दम खोजी केॅ देखें,

जेना परासें करै बसंत में सन-सन,
ऐतै बरसात हरहरैबोॅ होय छै बन्न।
आबेॅ होय गेल्हेॅ नाढ़ोॅ-नांगटो एकदम,
केनॉ लेभेॅ घोघटोॅ सोचोॅ मन्नें-मन।
सोचोॅ "संधि" देतौं काम आबेॅ कौन बापेॅ?