बस
आज से यहीं से ही
लौट जाना चाहिए मुझे वापस
क्यों कि
मेरे और मुंह उठाएं हैं
कई अपरिचित आकस्मिक दृश्य
मैं सचेत था
बहुत सचेत
मैंने पोखर के किनारे बैठ कर
उसे सागर नहीं माना
अपनेपन को ओढ़कर
गिनता रहा-
वक्त के लम्बे-लम्बे कदम
लेकिन अचरज है
लौटी जब भी चेतना
सूख गया मेरे पैरों का खून
बिखर गए बातों के डूंगर
बालू रेत के उनमान
मैं स्वीकारता हूं
इन पैरों नपी धरती को
जो मेरे लिए हैं
अनजान पखेरू-सी
मैं संभालता हूं
धीरे-धीरे छीजती
आशाओं की दमक
और सहेजता हूं
इन अलिखित इतिहास की भूलें
आने वाली पीढ़ियों के लिए ।
मुझे मालूम है
बहुत मुश्किल है
वक्त के तीखे दांतों से
खुद को अलाहदा करना
बस आज से ही यहीं से ही
लौट जाना चाहिए मुझे वापस
क्यों कि
चारों और मुंह उठाएं हैं
कई अपरिचित आकस्मिक दृश्य !
अनुवाद : नीरज दइया