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वंगीय बन्धुसँ / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
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हे बंग निवासी बन्धु! अहाँ छी हमर अंग,
अछि हमर मनक उत्ताप अहिंक सन्ताप संग।
हे वीरताक प्रतिमूर्त्ति! अहाँ सभ थिकहुँ धन्य,
इतिहासक पन्नोपर अछि नहि दृष्टान्त अन्य।
ई नग्नक्रूरता आइ अहिंक घर नाचि रहल,
अछि केहन मनोबल सुदृढ़, सैह टा जाँचि रहल।
अत्याचारी धुधुआइछ, किन्तु मिझाइत अछि,
चुट्टीकेँ मरबाकालक पाँखि बुझाइत अछि।
लपलपा रहल अछि चारू दिस क्रान्तिक ज्वाला,
रणचण्डीकेँ पहिराउ अहाँ मुण्डक माला।
शत्रुक संहारक हेतु अहाँ रण-सज्जित छी,
हमलय सहानुभूतिक स्वर छुच्छे, लज्जित छी।
अछि उमड़ि रहल आगाँ-पाछाँ उत्साह-सिन्धु,
स्वीकार करू नैतिक बल, हे बंगीय बन्धु!
विश्वास भरल बढ़ि रहल अहँक प्रत्येक चरण,
विजय श्री करती आगाँ बढ़िकय स्वयं वरण।