वंशी-वादन / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
सबसँ अधिक लगन छल हुनकर वंशी-वादनमे रुचिवंत
सप्तसुरी बाँसुरी बनाओल अपनहि हाथेँ रचि-रुचि अंत
बजबथि यमुना तट एकांतहि कहुँ वंसीवट छाया बैसि
तरु-शाखा किसलयक पुंजमे, लता-कुंजमे चुप्पहिँ पैसि
प्रकृति शान्त, निस्तब्ध पवन, निःशब्द गगन, तृण धरि नहि डोल
ने वनमे विहंग कूजन, ने अवनी-तल पशु धरि मुह खोल
जखन मयूर-पाँखि खोंसल लय माथ मुकुट-मुरलीधर आबि
बजबथि वेणु रेणुधरि पुलकित, पुलकित, सुरभित कण-कण उठइछ जागि
सब सन्नद्ध पिनद्ध माल जनु हृदय बीच, स्वर-सुरभि बिखेरि
करइछ तृप्त मगन मन विश्व-विमोहन मोहन मुरली टेरि
कखनहु तरु कदब शाखा चढ़ि बजबथि रस धुनि राग नवीन
तान-वितान ताल-लय सम्मत राग-रागिनी कला प्रवीण
नव रस संगत छबो राग छत्तिसो रागिनी जत जे उक्त
शुद्ध मिश्र शत-शत प्रभेद जत गमक-यमक मूर्छना प्रयुक्त
कोमल तीव्र सप्त स्वर द्वादश स्थायी संचारी जत भेद
मार्गी देशी सभक समन्वय करइत धु्रव अंतरा प्रभेद
कखनहु तरुपर चढ़ि उदात्त स्वर टेरथि गगन-विहारी कृष्ण
पैसि निकुंज मंद अनुदात्तहि गुंजथि कुंज-बिहारी कृष्ण
पुनि कालिन्दी-कूल धूलिपर स्वरित उचारथि स्वर रस-तृष्ण
चंद्र-चंद्रिका धवल महल धरि व्रज भरि स्वर संचारी कृष्ण
दौड़ि पड़थि गृह-कारज तजि किछु व्याजेँ व्रजबाला संधानि
ठामहि बैसि जाथि पुनि कत धनि नयनमूनि धुनि रहलि अकानि
क्यौ जल भरय कलश लय दौड़ि पड़थि यमुना-तट स्वर-संकेत
कृष्ण चन्द्रकेँ तकइत चन्द्रहिकेँ निहारि क्यौ भेलि अचेत
ग्वाल-बाल लय कर-करताल चलथि हुलसल, संगति करबे
क्यौ मंजीरहि झनझन करइत पहुँचथि, हमहु रंग भरबे
जनिका से नहि रिक्त-हस्त से कहथि हमहु थपड़ी थपबे
सखा सुकंठ मधुर धुनि गुन-गुन करइत कहथि संग पुरबे
आइ व्रजक वातावरणहुमे स्वर-संगम विहंगमहु बीच
मोहन मुरली धुनि सुनि वन-रसाल बिच कोकिल कंठ उलीच
तृण चरइत मृग दौड़ि पड़ल, कुण्डलित फणी श्रुति-दृग विस्तारि
घास-पानि सब छोड़ि धेनु-धन समुख वेणु गोपाल निहारि
वंशी-बादन वंशीधरक, धड़कि रहले उर-उर रक्तोष्ण
शब्दवेध सभ विषय-भेदकेँ छेदि आइ अछि समशीतोष्ण
गंध-रूप-रस-परस चारु वर्गक ऊपर अछि सूक्ष्म विषय
भूमि पानि जल-पवन व्याप्य अछि व्यापक नभ, ई निःसंशय