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वर्जनाएँ अब नहीं / महेंद्र नेह
Kavita Kosh से
आसमानों
अर्चनाएँ
वन्दनाएँ अब नहीं ।
ज़िन्दगी अपनी
किसी की मेहरबानी भर नहीं
मौत से बढ़कर
कोई आतंक कोई डर नहीं
मेहरबानों
याचनाएँ
दास्ताएँ अब नहीं ।
ये हवा पानी
ज़मीनें, ये हमारे ख़्वाब हैं
ये गणित कैसी
ये सबके सब तुम्हारे पास हैं
देवताओ
ताड़नाएँ
वर्जनाएँ अब नहीं ।
जन्म से पहले
लकीरें हाथ की तय हो गईं
इक सिरे से
न्याय की सम्भावना ग़ुम हो गई
पीठिकाओ
न्यायिकाएँ
संहिताएँ अब नहीं ।