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वर्षा का गीत / 2 / भील

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भील लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

खयड़ी न बयड़ी रेल-छेल पाणी, इड्ला ना घेर पर पाणी निहिं।
वारिस वो मेघ बाबा, ढुडी व ढुडी व॥
खयड़ी न बयड़ी रेल-छेल पाणी, इड्ला ना घेर पर पाणी निहिं।
वारिस वो मेघ बाबा, ढुडी व ढुडी व॥
चोखा अतरी विजली, सुपड़ा अतरो बुलावो।
गाजण्यों काहाँ मरीग्यो,
वारिस वो मेघ बाबा, ढुडी व ढुडी व॥
टूटलास् खाटलाय पड़ी तो मांगती, पाणी दे वो पाणी दे।
नोण दे वा मीरी दे, कुयडू पान्यो काइ करि खाऊँ,
ढूडी व ढूडी व॥

- जब फसल बोने के बाद वर्षा रुक जाती है और फसलें सूखने लगती हैं तो लोग
रात्रि में एकत्रित होकर ग्राम में निकलते हैं। प्रत्येक घर जाकर गीत गाकर अनाज,
नमक, मिर्च माँगते हैं और दूसरे दिन एकत्रित सामग्री से उज्ज्वणी मनाते हैं। उज्ज्वणी
करने से वर्षा हो जाती है- यह विश्वास है। इसमें जो गीत गाया जाता है उसे ढूडी
खेलना कहते हैं। प्रत्येक घर की महिला सुपड़े में पानी लेकर ढूडी वालों पर फेंकती है।

गीत में कहा गया है-

पहाड़-पहाड़ियों पर खूब वर्षा हो रही है, इडला के घर पानी नहीं है। हे बादल बाबा!
बरस जा। नाले सूख गये, लावा-तीतर प्यासे मर रहे हैं। हे बादल! बरसो। बहुत
छोटी बिजली चमक रही है, सूप के समान बादल हैं। हे गरजने वाले बादल! कहाँ
कर गया? हे मेघ बाबा! बरसो।

माँगती के घर के सामने जाकर गीत में कहा गया है-

टूटी हुई खटिया पर माँगती पड़ी है, माँगती पानी दे। नमक दे और मिर्च दे, कोरी रोटी
किस प्रकार खाऊँ?